हमारा उद्देश्य

"हित का सृजन अहित का विसर्जन यही शिक्षा का लक्षण है।"

उद्देश्य किसी भी लक्ष्य प्राप्ति के छोटे पायदान के रूप में हमेशा से हम सामने रखते आये हैं। प्रतिभास्थली जो कि संस्कारस्थली हैं उसमें परम लक्ष्य हैं व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होकर उसका नव निर्माण हो जिससे जीवन की सार्थकता उसे प्राप्त हों। इसके लिए गुरुवर ने 7 महत्वपूर्ण आधार स्तंभ दिए हैं।

स्वस्थ तन:
‘शरीर खलु धर्म साधन’ शरीर अगर स्वस्थ,स्फूर्तिमान एवं तरोताजा होता हैं, तो किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना आसान होता हैं। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ विचारों का परिचायक हों, लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होता हैं।
 
स्वस्थ वचन:
कमान से निकला तीर जैसे वापिस नहीं आता वैसे मुख से निकला हुआ वचन वापिस नहीं आ सकता। इसलिए जिस तरह दूध में मिश्री घुल जाती हैं वैसे ही छात्र के वचन हित-मित, प्रिय एवं प्रासुक हो जिससे वह सामने वाले को अपना बना ले।
 
स्वस्थ मन:
“मन के हारे हार है मन के जीते जीत।”
मन अगर विकार, वासना, आसक्ति आदि दुर्भावों से रहित होकर एकाग्र,उदार,व्यापक,सर्वहिताय हो तो,वह जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है।
 
स्वस्थ धन:
स्वस्थ धन वही है जो न्याय नीति से अर्जित कर संतोष को प्राप्त कराये। वह धन संग्रह न कर उसका यथोचित सदुपयोग कर वक्त आने पर वितरण कर दे। वैसे स्वस्थ धन की शिक्षा श्रम से साध्य है।
 
स्वस्थ वन:
वन से सिंह,
सिंह से वन बचा,
पूरक बनो।
प्रकृति से ही मानव की सुरक्षा एवं रक्षा है। ऐसे प्रकृति के उपकारों को हमेशा याद रखकर उसके रक्षा एवं संवर्धन में सहयोग प्रदान करें।
 
स्वस्थ वतन:
“देश से है प्रेम तो हरदम ये कहना चाहिए,
मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए।”
ऐसे राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत भावना से छात्र कभी भी राष्ट्र का अहित नहीं कर सकता। राष्ट्र के प्रति समर्पण, बलिदान, त्याग की भावना का अर्जन ही स्वस्थ वतन है।
 
स्वस्थ चेतन:
परोक्ष से भी और प्रत्यक्ष में भी एक सर्वशक्ति से परिपूर्ण, शाश्वत एक चेतन तत्व है जो अजर अमर है। ऐसे आध्यात्मिक भावनाओं का विकास करके उसकी अंतर्निहित शक्तियों को जाग्रत करना ही स्वस्थ चेतन की निशानी है।